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1956 से आकािवारी और बवबवध भारती से अनेक नाटकों और वाता्णओं का मैंने कब चाँद और सितारों की तमन्ा की थी.... भला हो इस बडबजटल युग का, कुछ िबद सॉफटवेयर में रो गए, मेमोरी स े जैसे बविाल-वयािक क्ेत्र में अधययन-सृजन करते रहे, भला उस अबकंचन के योगदान
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बहंदी-अंग्जी प्रसारर, भारत सरकार की ओर से 1969 से 1983 के िीच निाल बमट गए। आज िड़ा दग्णम है इनहें सार लेकर चलना, संयम और िालीनता, का कया मूलय? अभी कुछ बदनों िव्ण 2017 में िटना बवश्वबवद्ालय के एक अतयत
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और नाइजीररया में लगभग दस वषषों की बवबिष्ट अधयािन सेवा की प्रबतबनयतति, जीवन एक उतसव है, समय उसका बमत्र। इन दोनों के िीच बवजय-िराजय की साधना और संघष्ण, नबतकता और बनष्ा, गररमा और प्रबतष्ा, श्द्ा और आराधना। कम्णि कुलिबत डॉ. रासबिहारी प्रसाद बसंह ने एक दल्णभ ऐबतहाबसक िताबदी-सममान
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िीएचडी के बलए िोध-छात्रों का माग्णदि्णन। एक लंिी दौड़ ही बजंदगी है। समय कभी बकसी के बलए रुकता नहीं, कभी बकसी बफर भी, कुछ को इनका सार नहीं छूटता कयोंबक यही उनकी िंजी है, उनकी “Excellence Award for Valuable Contribution to the Advancement of Knowledge” दे अनग्बहत
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की प्रतीक्ा भी नहीं करता। उमंग और उल्ास इस जीवन के उिहार हैं और उम्र आधार-ितति और उनकी कम्णभबम है। कर बदया। कहीं बकसी ररशत का एक धागा तक नहीं, मात्र मानवीय मूलयों का समादर,
इस जीवन-यात्रा का एक-एक िल वरदान है। इसी के अनुसार उसका बवसतार एक उिलतबध। चुनौती यह है बक कया हम अिने अभाव और अिनी िीड़ा को भूलकर योगयता-बनषिादन का अबभनंदन। एक तथय सवीकार कर लें। बिष्टाचार और सदाचार,
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और वयवहार भी होता है। आि तो सवयं समझते हैं। करीि 83 वषषो की अनवरत भी अिनी सांसो को सारकता दे िाएंगे, कुछ आिने अिने अनमोल आिीवा्णद की एक िूंद कया दी, अगला तो अिने को बवनय और बवनम्रता, बनषिक्ता और बनबभ्णकता इस धरती िर अि भी िेष है।
करा को अचानक एक िार में समेट िाना अबज्णत कर िाएंगे? िहुत कष्ट है एक अनुकूल सागर-सम्राट ही समझ ििा। उनमुति आतमीयता के िस कुछ बचत्र। िटना
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बकतना कबिन है। आिकी तो िात ही कुछ आचरर, उियोगी कम्ण, सुदृढ़ संसकार, आदि्ण बवश्वबवद्ालय के िूव्ण बवभागाधयक्, मेरी ज्ानधारा के प्रमर स्ोत प्रो. नारायर और अंत में, इस िबवत्र धराधाम में आगमन का न कोई दद्ण, न गव्ण। प्रवि स े
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और है। आि इस बडबजटल युग के ऐसे दल्णभ बवचारधारा, समबि्णत सहयोग भावना और प्रिल लाल नड्ा, जो अि करीि 95 वष्ण की आयु का सर भोग रहे हैं और बजनहोंन े प्रसरान तक लड़ते-झगड़ते, सुनते-सहते, बजंदगी कट गई। अि तो बडबजटल मृतय ु
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प्रारी हैं, जो जि चाहें बजसे चाहें, िड़ी सरलता संतोष के सार अिने को आगे ले जाना। कम अिने िररवार को एक अनिी राष्टीय गररमा प्रदान की है, मेरे बलए बिछले 65 है, वक्क फ्ॉम होम से आतमा की िाबत की कामना है।
से बकसी को भी कभी भी, बडलीट कर सकत े लोग हैं, जो आिका सार दे सकें, आिको प्रेररा वषषों से काय्णिीलता की सतत प्रररा रहे। प्रसारर साबहतय की रचनातमकता और
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हैं। बफर चलता रहे अिलोड और डाउनलोड दे सकें। हमें-आिको िचते-िचाते इसी माग्ण िर लरन-बिलि के क्त्र में 1956 से अबवसमररीय बवद्ान िं. प्रफुल् चंद्र ओझा ‘मति’ अभाव की अनुभबत, िीड़ा का डंक, वेदना की बससकी, चोट िर चोट,
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का बसलबसला। आगे िढ़ना है और सि कुछ यहीं छोड़ जाना का वातसलय प्रम, बसद्हसत नाटककार डॉ बसद्नार कुमार का अनुज प्रम और बवरोबधयों के आक्रमर के िीच अिने अतसततव की रक्ा करता संघष्ण और इन
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है। हमारी मंबजल कहां है? हमने तो अिनी आकािवारी और दूरदि्णन के िूव्ण केंद्र-बनदिक राधाककृषर प्रसाद का प्रिासबनक सिके िीच एक मौन और मूक कम्ण-संग्ाम है। अि तो बिक्चर िाकी नहीं, महज
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िबदों के मायाजाल को आि कया कहेंगे? बवविता और अिनी सीमाएं सवीकार कर ली प्रोतसाहन, सभी ने आकािवारी के बलए समबि्णत साधना का एक दीघ्णकालीन ऐंड िचा है।
िटोरो और िांटो। नहीं तो लोक-िरलोक दोनों हैं, मूलयों को ही अिना सीमाबचनह मान बलया। आधार और बवकास प्रदान बकया। आश्चय्ण, जहां आिा की भागती-दौड़ती एक
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की दग्णबत, गुनाह न भी हो ति भी सजा बमल बकरर भी न री वहां बवश्वास के सिल सतभ। आभार आि सभी के सतत स्ह-दान का, जीवन के अबतम मोड़ िर भी अबडग
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कर रहेगी, जो जनमजात मूर्ण हैं भला उनकी िंसकार, िमन्वय, िंतुलन और िमर्पण रह िाया। इस िबवत्र प्रागर में आिकी उदार आतमीयता की िस दो िंद और जो
कया िात? जो बमला, िहुत बमला। का िंकलर ही हमारी दृष्टि है। वे, जो रात के अंधेरों से रोिनी चुराकर जीवन-िययंत बिक्ा, साबहतय और समाज जीवन की िेष सांसों को अिनी ममता की गोद और आंचल की छाया दे सके | O
42 डॉ. तारकेश्वर प्रसाद मैततन डॉ. तारकेश्वर प्रसाद मैततन 43